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बांग्लादेश के लोकतंत्र में बढ़ता वैचारिक संघर्ष: इस्लामी राजनीतिका नेपाल पर प्रभाव


 अनिल तिवारी

बीरगंज । बांग्लादेश के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को मूल आधार माना गया है, लेकिन इसी संविधान में इस्लाम को राज्य धर्म के रूप में मान्यता दी गई है। यही विरोधाभास आज देश में दोहरे वैचारिक संघर्ष को जन्म दे रहा है।

प्रधानमंत्री शेख हसीना की अगुवाई वाली अवामी लीग सरकार ने धर्मनिरपेक्षता को बचाए रखने की कोशिश की है, लेकिन उन पर सत्ता के दुरुपयोग, तानाशाही रवैया अपनाने और भ्रष्टाचार में लिप्त रहने के गंभीर आरोप लगे हैं। युवा पीढ़ी में अवामी लीग के प्रति मोहभंग स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसी असंतोष की पृष्ठभूमि में हिफाजत-ए-इस्लाम, जमात-ए-इस्लामी और नवगठित एनसीपी (न्यू कंसेंशस पार्टी) जैसे कट्टरपंथी संगठन धार्मिक भावनाओं को उभार कर सत्ता समीकरण को प्रभावित करने में जुटे हैं।
एनसीपी जैसे नवोदित राजनीतिक दल युवाओं के बीच वैकल्पिक शक्ति बनने के नाम पर जमात जैसे कट्टरपंथी संगठनों से सहयोग कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, एनसीपी के नेता हिज्ब-उत-तहरीर की रैली में शामिल हुए, इस्लामी छात्र शिबिर के प्रति आभार जताया और लैंगिक समानता से जुड़े कानूनों का खुलेआम विरोध किया।


इन घटनाओं ने बांग्लादेश में उदार लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की भावी दिशा पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। जमात की पुनरावृत्ति केवल राजनीतिक पुनरागमन नहीं, बल्कि एक सामाजिक व वैचारिक पुनर्संरचना की गहरी परियोजना है, जो बांग्लादेश के संवैधानिक चरित्र को ही बदलने की दिशा में आगे बढ़ रही है।

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जिस प्रकार पाकिस्तान में सैन्य तानाशाही, बांग्लादेश में लोकतांत्रिक निरंकुशता और भारत में संवैधानिक लोकतंत्र के बीच जमात का अस्तित्व कायम है, उसी प्रकार नेपाल में भी इसकी वैचारिक गूंज सुनाई देने लगी है। खासतौर पर भारत के सीमावर्ती बिहार, उत्तर प्रदेश और बांग्लादेश के नजदीक नेपाल के तराई क्षेत्र में इसका प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।

यदि बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही या समय से पहले चुनाव हुए, तो इस्लामी कट्टरपंथी शक्तियों के लिए और अधिक उभार की संभावना बढ़ जाएगी। यह स्थिति पूरे दक्षिण एशिया, विशेषकर हिंदू बहुल धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रों के लिए एक नाजुक मोड़ बन सकती है।

इतिहास की छाया में वर्तमान की चाल
1971 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जमात-ए-इस्लामी ने अल-बद्र के माध्यम से हिंसक भूमिका निभाई थी। इसके बाद इसे प्रतिबंधित किया गया। 2008 के बाद अवामी लीग सरकार ने युद्ध अपराधों के नाम पर इसके शीर्ष नेतृत्व को कानूनी दंड देने की कोशिश की।

हालांकि, इस संगठन की वैचारिक, छात्र एवं सामाजिक संरचनाएं आज भी जीवित हैं – इस्लामी छात्र शिबिर, ग्रामीण सेवा संस्थान, धार्मिक ट्रस्ट इत्यादि के रूप में। आज जमात नए नामों और मुखौटों के साथ फिर से चुनावी राजनीति में लौटने की तैयारी कर रही है।

1941 में मौलाना अबुल आला मौदूदी द्वारा स्थापित जमात-ए-इस्लामी का मकसद केवल सत्ता प्राप्ति नहीं था। इसका उद्देश्य संपूर्ण समाज को – शिक्षा, प्रशासन, अर्थव्यवस्था और न्याय – इस्लामी शरीयत के अनुरूप ढालना था।
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“विचारधारात्मक डीप स्टेट” – एक गुप्त और जटिल रणनीति
जमात-ए-इस्लामी को केवल एक राजनीतिक दल के रूप में देखना भारी भूल होगी। यह संगठन एक वैचारिक “डीप स्टेट” की तरह काम करता है, जो चुनावों को अपनी वैधता प्राप्त करने का माध्यम बनाकर अंदर ही अंदर संवैधानिक संस्थानों को कमजोर करता है।

नेपाल के सन्दर्भ में, हाल ही में यह भी सामने आया है कि लगभग 200 हिंदू युवकों ने इस्लाम धर्म अपनाकर जमात से जुड़ने का मार्ग चुना है। यह परिवर्तन किसी आत्मिक श्रद्धा से नहीं, बल्कि संगठित वैचारिक अभियान का हिस्सा है।

क्षेत्रीय भू-राजनीति में जमात की तिकड़ी चुनौती
पाकिस्तान – सैन्य सत्ता के समर्थन से इस्लामीकरण का एजेंडा।

बांग्लादेश – लोकतंत्र के नाम पर इस्लामी पुनर्संरचना।

भारत और नेपाल – धार्मिक असंतुलन और उग्र विचारधारा के प्रचार का नया केंद्र।

जमात की छात्र शाखाएं जैसे कि इस्लामी जमीयत-ए-तलबा, पाकिस्तान के विश्वविद्यालयों में आज भी नैतिक पुलिस की भूमिका निभा रही हैं। बांग्लादेश में यह संगठन “नई राजनीतिक पार्टी” के नाम पर चुनावी मैदान में फिर लौट रहा है। नेपाल में यह “अधिकार” और “सामाजिक न्याय” के नाम पर समाज में गहरी पैठ बना रहा है।

संगठनात्मक जाल और रणनीति
छात्र संगठन

धार्मिक ट्रस्ट

कल्याणकारी संस्थाएं

शैक्षिक-सांस्कृतिक मंच

वैचारिक प्रकाशन गृह

जमात की रणनीति सीधे टकराव नहीं, बल्कि “धीमी घुसपैठ” है। मदरसों, ट्रस्टों और छात्र संगठनों के माध्यम से यह लंबे समय तक अनदेखा रहकर वैचारिक जड़ें जमाता है।

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सलाफिज्म और इस्लामी उग्रवाद – लोकतंत्र को सीधी चुनौती
सलाफिज्म, जो खुद को “शुद्ध इस्लाम” का वास्तविक अनुयायी मानता है, कुरान और सुन्नाह की अक्षरश: व्याख्या पर विश्वास करता है। यह विचारधारा आधुनिक इस्लामी विकास की प्रक्रिया को नकारती है और अपने मानकों को सार्वभौमिक मानती है।

जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में यह विचारधारा आंतरिक सुरक्षा एजेंसी (BFV) के निगरानी दायरे में आती है क्योंकि यह धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल्यों का विरोध करती है।


निष्कर्ष: केवल रणनीति नहीं, वैचारिक जागरण भी जरूरी
जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों से मुकाबला केवल सुरक्षा रणनीति से नहीं हो सकता। इसके लिए वैचारिक मोर्चे पर भी युद्ध जरूरी है – स्कूलों, विश्वविद्यालयों, मिडिया और समाज में।

इसे मुख्यधारा में लाकर नियंत्रित करने की सोच एक आत्मघाती भूल साबित हो सकती है। लोकतंत्र को उसकी नींव से उखाड़ फेंकने का यह प्रयास शांत, धीमा लेकिन अत्यंत घातक है।

राज्य को चाहिए कि वह केवल विरोध न करे, बल्कि वैचारिक वैकल्पिक शक्ति को सशक्त बनाए। यह एक दीर्घकालिक, परंतु अनिवार्य संघर्ष है – राष्ट्र के आत्मबोध और अस्मिता की रक्षा के लिए।



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